मृत्यु बहुत शीतल सुखदाई, जीवन आग अनल है
एक विजय है दुख के गढ़ पर, और दूसरा रण है
एक कृष्ण की गीता है, तो अन्य कर्ण का प्रण है
एक तृप्ति अमृत पीने की, अन्य प्यास-मरुथल है ।
लेकिन आग, प्यास, रण-प्रण का सुख अद्भुत-आलौकिक
कहाँ नींद में सत्य, जगत का ? जो भी है, मिथ्या है
स्वर्ग-नरक सब उसी जगत के, और नहीं तो क्या है
जीवन क्या है आग, अनिल, जल, मिट्टी ही है। भौतिक।
सब मिलकर जीवन बन जाते सुन्दर एक खिलौना
रन्द्र-रन्ध्र में भरी हवा बज उठती, जैसे कूके
सप्तम स्वर में इसे बजाने से कोई मत चूके
पुतले का क्या, ब्याह हुआ, फिर लगे हाथ ही गौना!
मध्य निशा की नींद, मृत्यु है; जीवन मध्य दिवस है
योगी हो, या नर हो, सुर हो, किसका इस पर बस है।