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अविनाशी मैं / अमरेन्द्र

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जब जाऊँगा, जाने का कुछ मुझको क्लेश न होगा,
जितना जो कुछ कर सकता था, चुका कहाँ करने से
अब तो जीवन मुझे मिलेगा बस अपने मरने से
मैं दुनिया में रहूं-न-रहूं; किया शेष न होगा ।

मैंने लोगों के हाथों में कलश दिए हैं रस के
ऐसा रस, जो अमृत है, निकला है तल-मन्थन से
उतर पड़ा हो झर-झर कर ज्यों बादल काले घन से
जो कुछ दिया जगत को मैंने, मुक्त हृदय से हँस के ।

धरती पर रहने को क्या-क्या लोग नहीं हैं करते
मोती-माणिक से चाँदी के सौध यहाँ गढ़ जाते
जिसको सोने की परतों से पूरा ही मढ़ जाते
फिर भी कंचन-किला-महल ये सदियों कहाँ ठहरते !

मैंने आग, अनिल, माँटी और जल से रचे हैं अक्षर
मैं दुनिया में रहूँ-ना-रहूँ मेरा कृत्य अखम्मर ।