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चाह / अमरेन्द्र

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मन करता है रच दूं फिर से एक नया संसार
इस पत्थर को छील-छाल कर मूर्ति नई एक गढ़ लूं
किसके दिल में क्या हैं बातें एक-एक कर पढ़ लूँ
माना कि मैं नहीं विधाता-विधि ही या अवतार ।

मैंने ही अपने हाथों से विधि का भाग्य बनाया
जब-जब चाहा समय-काल से उसका रूप गढ़ा है
जब-जब नत मैं उसके सम्मुख, उसका मान बढ़ा है
मैंने जब-जब चाहा नभ को, तब-तब उसे झुकाया ।

मैं धरती का बेटा हूँ मुझमें वह तेज-अनल है
सागर मुझमें शोर मचाता जब छूता नभ कर से
कुछ भी नहीं उठा तिल ऊपर भू पर, मेरे सर से
मुझमें ही तो काल समाया कल्प, वर्ष और पल है ।

मन करता है देश-देश को जोड़ूं, एक बना दूं
खाई को कंधे पर ले लूं, गिरि से उसे मिला दूं ।