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तम का ताण्डव / अमरेन्द्र

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कहीं बहुत कोलाहल है, तो कहीं बहुत सन्नाटा
कहीं रुदन का बादल गड़गड़, कहीं चीख-चीत्कार
कहो बुद्ध, क्या यही तुम्हारी करुणा का संसार
सोते बच्चे के गालों पर कसा हुआ यह चाँटा ।

क्या होगा निब्बाण प्राप्त कर दुनिया जब हलकान
मैं समाधि में सोऊँ, इससे बेहतर जाग रहा हूँ
अन्धकार पीछे है और मैं तम में भाग रहा हूँ
प्रेतों की मुट्ठी में थरथर कलियुग के भगवान ।

बच्चों का बाजार लगा है, कोखों का व्यापार
कोस-कोस तक सनी हुई है मिट्टी लाल रुहिर से
समाधिस्थ हो बुद्ध ! तुम्हें अब जगना होगा फिर से
शून्य सजे, इससे अच्छा है, सजे सकल संसार ।

उजड़ गई है नर-नारी की दूर दूर तक बस्ती
तीर्थंकर के गाँव-गाँव में तोपों की है गश्ती ।