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वार्तालाप / अशोक कुमार शुक्ला

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पीले पड चुके
डायरी के पुराने पन्ने को
खोलता हूं
तो हडबडा कर
जाग उठी है वो कविता
जो सो रही थी
मोरपंख के साथ…
इसी तरह वर्षो से
मैं अक्सर जगा देता हूं उसे
फिर वो कविता बतियाती है
उस दूसरी कविता से
जो सूखे गुलाब की
पंखुड़ियों पर
तुम्हारी उंगलियो के
स्पर्श से
लिखी गयी थी
बाते करते करते
और भी सुर्ख हो जाता है
उसका लाल रंग
फिर से महक उठती है
उसमें नयी ताजगी
पन्ने खुलने पर
पुनः
जाग जाता है वो स्पर्श
बैचैन होता है मन
फिर कहॉ सो पाता हूं मैं
और वो भी
जागती ही रहती हैं
सारी सारी रात
मेरे साथ
तुम तक भी जरूर पहुंचती होंगी
उनकी संवेदनाऐं
जब इन्हें देखकर
सोचता हूं मैं
काश..!
संवेदनाओ का आवेग
तोड़ पाता
तुम्हारे अहं की दीवार को..!