Last modified on 30 मई 2008, at 12:00

भुजरियें / नीलेश रघुवंशी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:00, 30 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलेश रघुवंशी |संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी }} माँ ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

माँ

नौ दिन देती है पानी

मिट्टी से भरे दोनों में

उगती है धीरे-धीरे इच्छाओं की तरह

एक-एक कर अनगिनत भुजरियें

एक-दूसरे पर बोझा डालतीं

झुकती हैं एक-दूसरे पर

माँ का दिया पानी चमकता है

बूंद-बूंद मोती की शक्ल में

रोती है माँ

मिट्टी से भरे दोनों में उगी भुजरियों को

करती है विदा भाई की साईकिल।

रोता है भाई

रोते हैं हम सब साथ भुजरियों के

ससुराल में बैठी बहनों को याद करके।