जगह नहीं चाही है मैंने, कभी किसी के रूप भवन में।
न मैंने उड़ना चाहा है, कभी किसी के निजी गगन में।
मैं तो बस इतना चाहता हूँ, मुझे समझ कर समिधा, मित्रो!
मन हो तो दे देना मेरी, कभी आहुति प्रेम हवन में।
जगह नहीं चाही है मैंने, कभी किसी के रूप भवन में।
न मैंने उड़ना चाहा है, कभी किसी के निजी गगन में।
मैं तो बस इतना चाहता हूँ, मुझे समझ कर समिधा, मित्रो!
मन हो तो दे देना मेरी, कभी आहुति प्रेम हवन में।