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मुगालते / आनंद कुमार द्विवेदी

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कुछ मजबूरियां
करतब समझी जाती हैं,
कुछ करतब
मजबूरी में ही संभव हैं

कुछ दर्द ...
कविता को जन्म देते हैं
कुछ
कविता से दूर करते हैं,

मौत के कुएँ में गाड़ी चलाना
मजबूरी है, दर्द है
कविता है
या करतब ?

कुछ सपने चरितार्थ करते हैं अपना नाम
और रहते हैं ताउम्र
ठेंगहा यार की तरह जबरिया साथ

कुछ साथ ...
एकदम सपने की तरह
लाख कट्टी साधे पड़े रहो
नहीं शुरू होते दुबारा
एक बार टूट जाने पर,

तुम सपना हो,
साथ हो... या फिर दर्द ?

कुछ आँसू
आनंद बनकर बहते हैं आँख से
तो कुछ आनंद....
आँसुओं की राह मिलते हैं खाक़ में

मैं आनंद हूँ
आँसू हूँ
या खाक़ ?