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चीज़ें / अनिल गंगल

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धीरे-धीरे पुरानी पड़ती चीज़ें
अन्तत पुरानी हो जाती हैं
चीज़ें पुरानी हो जाती हैं
तो मुनाफ़ाख़ोरों के दिलों की धड़कने बढ़ने लगती हैं
और मुनाफ़ों के तम्बूओ में छेद होने लगते हैं
पुराना पड़ने के साथ
चीज़ों के साथ बने पुराने सम्बन्ध टूटते हैं
और नई चीज़ें नए नामों और नए रूप-रंग के साथ
बाज़ार के पटल पर दमकने लगती हैं
ऐसा भी होता है
कि चीज़ें वही पुरानी की पुरानी बनी रहती हैं
मगर नए नामकरण के साथ
वे नई जेबों पर धावा बोलती हैं
गीता की कथित आत्मा की तरह
चीज़ें पुराने वस्त्रों को त्याग
नए वस्त्रों को धारण करती
पूँजी के जख़ीरे को और ऊँचा उठाती रहती हैं।