Last modified on 14 जून 2008, at 21:01

रात जैसा दिन / चंद्रभूषण

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:01, 14 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चंद्रभूषण }} काले सलेटी आकाश के बीचो बीच कलौंछ कत्थई ल...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

काले सलेटी आकाश के बीचो बीच

कलौंछ कत्थई लाल अंधेरा फेंकता

चाक जितना बड़ा कटे चुकन्दर जैसा सूरज

गीले चिपचिपे ग्रह का बहुत लम्बा बैंगनी सियाह दिन

देख रहे हो तुम उसे यहाँ से

देख रहा है वह तुम्हे वहाँ से

रह गये तुम रह गये भाई इसी इत्मीनान में कि

बीच में कसे हैं इतने सारे प्रकाश वर्ष

जान नहीं पाये तुम

ना ही तुम्हारे साथ खड़ा मैं-

कब आया कब बीत गया

इस ग्रह पर भी बैंगनी सियाह दिन

खीजते रहे यहाँ हम ठोंकते-रगड़ते अपना माथा

खोजते रहे हबड़-धबड़

मेज़ की दराज़ों में डिस्पिरिन-सेरिडॉन

पता नहीं चला कि कब हुआ अपना भी सूरज

चाक से बड़ा चुकन्दर सा कत्थई कलौंछ

मैंने कहा सुनते हो भाई, ओ दूरबीन वाले

बचे हैं अब यहाँ माथा रगड़ते सिर्फ़ हम दो जन

बाकी सब गिर गये कत्थई लाल अंधेरे में

पता नहीं चला कि

चुपचाप आये एक और ग्रह के बोझ से

कब हुई पृथ्वी इतनी भारी

कि कक्षा से टूट कर गिरी चली जा रही है

अनन्त अंधेरी रात में

नीचे, नीचे.. .. और नीचे