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ख़ुशी का समय / चंद्रभूषण

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ख़ुश रहो, ख़ुशी का समय है

शाम को दफ़्तर से घर लौटो तो

ख़ुशी की कोई न कोई ख़बर

तुम्हारा इंतज़ार कर रही होती है।


तुम्हारे साढ़ू ने बंगला बना लिया

एन.जी.ओ. में काम कर रही तुम्हारी सलहज

रात की फ्लाइट से अमरीका निकल रही है

पड़ोस के पिंटू ने लाख रुपये में इन्फोसिस पकड़ ली

शर्मा जी को मिल गया इतना इन्क्रीमेंट

जितनी तुम्हारी कुल तनख़ा भी नहीं है।


बेहतर होगा, इसी ख़ुशी में झूमते हुए उठो

और निकल लो किसी दोस्त के घर

वहां वह अपना कल ही जमाया गया

होम-थियेटर रिमोट घुमा-घुमाकर दिखाता है

फिर महीना भर पहले ली हुई लंबी गाड़ी में

थोड़ी दूर घुमा लाने की पेशकश करता है

लौटकर उसके साथ चाय पीने बैठो

तो लगता है कृष्ण के दर पर बैठे सुदामा

तंडुल नहीं धान चबा रहे हैं।


छुट्टियों के नाम पर झिकझिक से बचने

किसी रिश्तेदारी में चले जाओ

तो लोगबाग हाल-चाल बाद में पगार पहले पूछते हैं

सही बताओ तो च्च..च्च करते हैं

बढ़ाकर बताओ तो ऐसे सोंठ हो जाते हैं

कि पल भर रुकने का दिल नहीं करता।


दरवाज़े पर खड़े कार धुलवाते

मोहल्ले के किसी अनजान आदमी को भी

भूले से नमस्ते कर दो तो छूटते ही कहता है-

भाई साहब, अब आप भी ले ही डालो

थोड़ी अकड़ जुटाकर कहो कि क्यों खरीदूं कार

जब काम मेरा स्कूटर से चल जाता है

तो ख़ुशी से मुस्कुराते हुए कहता है-

हां जी, हर काम औकात देखकर ही करना चाहिए।


...और औकात दिखाने के लिए

उतनी ही ख़ुशी में ईंटा उठाकर

उसकी गाड़ी के अगले शीशे पर दे मारो

तो पहले थाने फिर पागलख़ाने

पहुंचने का इंतज़ाम पक्का।


ख़ुशी का समय है

लेकिन तभी तक, जब अपनी ख़ुशी का

न कुछ करो न कुछ कहो

मर्ज़ी का कुछ भी निकल जाए मुंह से

तो लोग कहते हैं-

अच्छे-भले आदमी हो

ख़ुशी के मौके पर

ऐसी सिड़ी बातें क्यों करते हो?