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मध्यरात्रि / पंकज सिंह

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मध्यरात्रि में आवाज़ आती है ‘तुम जीवित हो?’
मध्यरात्रि में बजता है पीपल
ज़ोर-ज़ोर से घिराता-डराता हुआ

पतझड़ के करोड़ों पत्ते
मध्यरात्रि में उड़ते चले आते हैं
नींद की पारदर्शी दीवारों के आर-पार
पतझड़ के करोड़ों पत्ते घुस आते हैं नींद में

मध्यरात्रि में घूमते होंगे कितने नारायन कवि धान के खेतों में
कितने साधुजी
सिवान पर खड़ी इन्तज़ार करती हैं शीला चटर्जी मध्यरात्रि में

मध्यरात्रि में मेरी नींद ख़ून से भीगी धोती सरीखी
हो जाती है मध्यरात्रि में मैं महसूस करता हूं ढेर सारा ठण्डा ख़ून

‘तुम जीवित हो?’ आती है बार-बार आवाज़

मध्यरात्रि में दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है
बजाई जा सकती है किसी की नींद पर साँकल

मध्यरात्रि में कभी कोई माचिस पूछता आ सकता है
या आने के पहले ही मारा जा सकता है मुठभेड़ में
मेरे या तुम्हारे घर के आगे

मध्यरात्रि में कभी बेतहाशा रोना आ सकता है
अपने भले नागरिक होने की बात सोचकर