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दुर्घटनाओं की खबरों से पटे रहे अख़बार / निधि सक्सेना

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हम भूलने के लिए पढ़ते रहे
टीवी चीखता रहता
सूंघता रहा मृत्यु
हम कान से ओझल होने तक सुनते रहे
किसान रस्सियों से झूलते रहे
हम नही महसूस कर पाये उनका दर्द
कहीं सूखा पड़ा
बहे नयन
कहीं बाढ़ से बहा सब
न पहुँच सकीं हम तक उन की सुबकियां

रोज़ बलात्कार के बढ़ते किस्से
कचरे में कन्या भ्रूण के बढ़ते अंक
आँखो के आगे से गुजर जाते
परन्तु अब पलकें फड़फड़ाती नही

राह में किसी दुर्घटनाग्रस्त को देख
मदद को हाथ बढ़ते नही
रोता बच्चा देख
कदम क्षण को थमते नहीं
घोसले से गिरा चिड़िया का बच्चा देख
उसे उठा कर रखने को मन मचलता नही
असहाय बुजुर्गों को देख
जी पसीजता नहीं
मरती नदी को देख
टीस उठती नहीं
तिरंगे में लिपटे सैनिकों को देख
आँख नम नही होती
कवितायेँ पढ़ कर
मन भीगता नहीं

कि बहुत बुरा है दुर्घटनाओं का होना
पर बहुत बहुत बुरा है
संवेदनाओं का मर जाना
मन का स्पर्शहीन हो जाना
आत्मा का मर जाना
हमारा भावशून्य हो जाना.