Last modified on 12 अक्टूबर 2017, at 15:27

सखियां मेरी / निधि सक्सेना

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:27, 12 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निधि सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कितनी बार हमने मनसूबे बांधे
कि कहीं दूर चलेंगे
छुट्टियाँ मनाने
बस हम और तुम
और कुल जमा सात दिन
न बच्चों का कोलाहल
न पतियों की दखलंदाजी
न गृहस्थी के झंझट
कि थोड़ा बादल चखेंगे
हवा संग बहेंगे
बाहों में धूप भरेंगे

पहले तो सोचा कहीं दूर जायेंगे
यूरोप
या ऑस्ट्रेलिया
फिर ख़्वाहिशों को अपनी वस्तु स्थिति बताई
इच्छाओँ को सिकोड़ा
सोचा भारत ही ठीक रहेगा
पर हम जितना अपनी इच्छायें संकुचित करते
वो हमसे उतनी ही दूर होती जाती

सो अभी तक तो जा नही पाए
कभी परिस्थितियाँ ने हमे जकड़ा
तो कभी हम ही रास्ता न निकाल पाए
कभी घर की ड्योढ़ी ने रोक लिया
कभी हम ही देहरी न लाँघ पाये

ये जानते हुए भी हम न जा पाए
कि ये प्रवास केवल मनोरंजन नही है
बल्कि छटाँक भर आत्मविश्वास की चाह है
थोड़ी आत्मसंतुष्टि की लालसा है
आत्मगौरव की अभीप्सा है

चलो फिर प्रयास करते हैं
थोड़ा स्वार्थी हो जाते हैं
थोड़ा खुद के लिए जीते हैं
बहुत दूर नही तो आसपास
आसपास नही तो यहीं कहीं
बड़ा नही तो छोटा ही
सपनों का आसमान खोजते हैं