Last modified on 16 अक्टूबर 2017, at 14:09

गर्म हवाएँ / ब्रजमोहन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:09, 16 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चारों तरफ़ बुनें बैठी हैं
गर्म हवाएँ ताना-बाना
कोयल छोड़ सुरीला गाना...

गा सकती है
तो मैं केवल आज़ादी के गीत सुनूँगा
वरना सबसे पहले
धड़ से गरदन तेरी अलग करूँगा

तूने सीखे गीत सुरीले, तू क्या जाने क्या होता है
भूख माँगती है जब खाना...

मन बहलाने
औ’ फुसलाने का मौसम अब चला गया है
सुर के छल-कपटों में
जाने कितना जीवन छला गया है
आग लगी है मन में ऐसी — धू-धू करके जलते सपने
अपना ही घर है बेगाना...