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नगर-बोध / रामनरेश पाठक

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एक नाम
महासमुद्रों को अर्पित है
नेपथ्य की उजास
अंधेरे रंगमंच को लील ले रही है

इसके पूर्व ही--पूर्व ही
पाँवों में झूमर और पहाड़ और झरने पहने लोग हैं

कहवाघर, नाचघर, शराबघर और लीलाघर
द्वितीय पुरुषों-स्त्रियों से शून्य है.
तृतीय स्वर के महाकाव्य को
विराम नहीं है
सूरज के उगने में अभी देर है
बंदमुख चीखती है कुंवारी धरती!
अकाल वसंत?
इला, सर्प, वलाहक और
याज्ञिकों की गोष्ठियाँ
वातानुकूलित कक्ष से बाहर
फैल गई है सड़कों पर
एक कोरी डायरी खुली पड़ी है
एक नाम महासमुद्रों को अर्पित है.