शिकारी फेंके जाल फ़सल जैसे चिड़ियाँ
पँख काटे चिड़िया के, पँख कमाल ...
पुतली शिकारी की निशाना बाँधे जाल का
रंग ही उड़ाता फिर बैरी आसमान का
दुश्मन हुआ है कैसा देखो रे उड़ान का
तड़फड़ाते पँछियों पे हँसता बवाल ...
चेहरा उसका न कम लगता उकाब से
पिंजरे बनाता पूरे गाँव के हिसाब से
जेलर की तरह से घूरता रुआब से
ठाँय-ठाँय क़दमों की चलता है चाल ...
पंछियों के झुण्ड पे पड़े हैं ऐसे टूट के
जैसे गोली निकले दुनाली में से छूट के
पंछी हाथ आए न ढोंग झूठ - मूठ के
सपनों के ख़ून जैसी आँख लाल - लाल
बड़ी - बड़ी जेबों में भरे हुए कबूतर
खाने पे बुलाता शहरों से गिद्ध अफ़सर
घर उसका है जैसे सरकारी दफ़्तर
सबको खिलाता दिल पंछी का निकाल ...