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कविता-पाठ / अनिल गंगल

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वे नाक तक अघाए हुए विशिष्ट जन हैं
जो गाव-तकियों के सहारे ख़ुद को किसी तरह सम्भाले हुए हैं
उनके पाँवों के आसपास खिसकती जाती है मिट्टी थोड़ी-थोड़ी
मगर वे सब एक ठोस ज़मीन पर खड़े होने के मुग़ालते में शरीक़ हैं

वे जानते हैं
कि उन्हें कैसे करना है श्रोताओं के आगे कविता-पाठ
कहाँ-कहाँ किन-किन जुमलों पर फेंकने हैं हाथ और पाँव
कहाँ करनी है उन्हें अपनी आवाज़ इतनी मद्धम
सुरों को रहस्यमय अन्धेरों में धकेलते हुए
कि लगे आ रही है धरती फोड़ किसी पाताल-तोड़ कुएँ से आवाज़
कब पंखों को तौल कर आसमान में भरना है परवाज़
कब आवाज़ में कड़कदार बिजलियाँ चमकाते हुए
पड़ौसी देश को देनी हैं धमकियाँ
कब कविता के ज़ंग लगे हथियारों से सिखाना है
दुश्मन को नानी-दादी याद कराने का पाठ

उनकी पृष्ठभूमि में सोने और चाँदी की चम्मचें हैं
गहन अन्धकार के बीच मोमबत्तियों के झीने-झीने प्रकाश में होते डिनर
और देशी दारू की गन्ध सुड़पती हुई लम्बी नाकें हैं
जिनके बीच खरपतवार की तरह उगी हुई कविताएँ हैं


विशिष्ट जनों की पँक्ति में से एक कवि उठता है
कवियों जैसा दिखाई देने के लिए
किसी मसखरे जैसी टोपी सिर पर धरे हुए
जिससे बाहर निकले सुनहरी आभा बिखेरते बाल लहराते हैं
उसने गले में डाला हुआ है मफ़लर
जिसमें जानबूझ कर लापरवाह दिखने की कोशिश है
किसी चोरबाज़ार से ख़रीदी गई जैकेट पहने हुए
वह लगता है ज़्बेगेन्यू हेबेर्त्ते की कोटि का कोई विदेशी कवि जैसा

उसकी आवाज़ जैसे किसी खाली घड़े से लौट कर आती दिखती है
अद्भुत है उसका शब्दजाल, वाक्य-विन्यास, लय और तुक
जो श्रोताओं को किसी अद्भुत ध्वनि-लोक के अन्तरिक्ष में
उतराते छोड़ देती हैं
जहाँ साँस लेने के लिए न हवा है, न ऑक्सीजन

एक लम्बे अन्तराल के बाद समाप्त होती है ज्यों ही कविता
एक कविता के पीछे चलती बहुत सी कविताएँ
आ खड़ी होती हैं मँच पर
कसते हुए श्रोताओं के चारों ओर बाँहों का शिकँजा
कि अँधेरा छँटने के बजाय गहरा
और गहरा होता जाता है

एक सनाका खिंचा रहता है श्रोताओं के चेहरों पर
निष्प्रभ और उदास
जैसे लौटे हों वे अभी-अभी श्मशान में किसी प्रियजन को मिट्टी देकर।