थकी-थकी सी धूप
तरूवर पर आ टिकी
कर रही है इंतजार साँझ का
दिन भर बाँटती रही
परछाई गैरों को
अस्तित्व निखारती रही गैरों का
ढूंढती रही पहाड़ांे पर, जंगलों में
झरनों में, खेत-खलिहानों में
ऊँची इमारतों में, चिकनी काली
सड़कांे पर या गर्द-गुब्बार उड़ाती गलियों में
खोज न पायी साया अपना
साथ निभाने वाला।
अस्तित्व हमारा भी है
यह जताने वाला।
अब धूप की छाया बन
साँझ उतर आयी है।
पर इस परछाई में अस्तित्व
बचा कहाँ धूप का।
थकी-हारी सी धूप आखिर
अपना अस्तित्व हार गयी।