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मेरा घर / राजीव रंजन

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मेरा घर आज भी मुझे बहुत प्यारा है।
माना, आधुनिक चकाचौंध से दूर थोड़ा पुराना है।
लेकिन पुरखों के खून से एवं उनके
बलिदान के पत्थरों से सजी इसकी
नींव आज भी बहुत मजबूत है।
न जाने कितने महावात और
भूकम्प झेल चुकी है यह इमारत।
आज तक न हिल पायी है इसकी नींव,
और न ही कोई झंझा गिरा पायी इसकी दीवार।
लेकिन इस इमारत को सजाने-संवारने
के नाम पर आए सुधारकों ने इसे छला है।
इसकी खिड़की-दरवाजों को उखाड़ लिया है।
और दीवारों के प्लास्टर तक को नोंच दिया है।
फिर भी पश्चिम से आए प्रभंजन को,
आज भी झेल रहीं इसकी दीवारें।
दीवारों से अवलम्बित इसके मैं खड़ा हूँ।
आज भी बचने को इस झंझा से।
टूटी खिड़कियों और दरवाजों से आती,
हवाएँ उड़ा रही शरीर के कपड़ांे को।
इसकी दीवारों के कोने में छुप आज भी,
बचा रहा हँू अपने को और अपनी इज्जत को।
लेकिन आज बनकर जो आए हैं इसके उद्धारक,
काया-कल्प के नाम पर वो खींच रहे
बलिदान खून से सींचे इसकी नींव के पत्थर।
उन्हें कौन समझाए यदि गिर गयी यह इमारत,
तो फिर नया कहाँ से बनाओगे ?
बलिदान के खून से सींचे इतने पत्थर


कहाँ से लाओगे ?
कैसे बचेगी यह इमारत यहीं सोच रहा।
पानी से मेरे पैरों के नीचे की जमीन
आज गीली है।
न जाने मेरी आँखों से पानी गिरा है,
या कि इमारत की लाल ईटों से वह झरा है।
हे प्रभु! मेरे शरीर का सारा रक्त,
निचोड़ कर एक नींव का पत्थर बना दे।
लगा कर इस इमारत में मजबूत करूँ
इसे इतना कि आगे आने वाली पीढ़ी को
यह बचाए भंुकप और झंझावातों से।