मुगल गार्डेन से निकल अब
मुगलिया हवा लोकतंत्र के
बागीचे में पहुँच गयी है।
फिर से बागीचे में सत्ता-संघर्श
के पौधे हरियाने लगे हैं।
सुनहरे ख्वाबों से लड़ने को
अब अपने ही तरकश में
तीर सरियाने लगे हैं।
फल पाने को पत्ते, शाख सब
विद्रोह गीत गुनगुनाने लगे हैं।
ऐसे में जड़ों का सत्ता-मोह
कम खतरनाक नहीं है
फल की लालसा में वे भी
मिट्टी से बाहर निकल
हाथ बढ़ाने लगे हैं।
आपस में ही अब वे सब
जोर आजमाने लगे हैं
ऐसे में बाग को जो सजाता है।
वही बागवां फिर ठगा जाता है।
दहकता गुलशन
हिमालय सा विश्वास आज
बालू की भीत सा भरक उठा।
सन्नाटे की थाप पर
कोलाहल थिरक उठा।
चेहरे पर लगे जख्म
देख दर्पण दरक उठा।
रोके कौन बहारों को
जब मौसम बहक उठा।
जज्बाती हवाओं से
बादल भी लहक उठा।
बरसते अंगारों से
गुलशन अपना दहक उठा।
घर में लगी ऐसी आग
देख पड़ोसी अपना चहक उठा।