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छाँव / राजीव रंजन

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जीवन मेरा है क्या यूँ ही गँवाने को?
सोच यह, तरूवर की छाँव में पड़े-
अपने जीर्ण तिनके के नीड़ को छोड़-
एक दिन मैं उड़ चला।
आसमान में अभेद्य दुर्ग बनाने को।
सपने जो सँजोए थे, उसे सजाने को।
सूरज, तारों को गले लगाने को।
आज मैं आसमान के ऊपर खड़ा हूँ।
अभेद्य दीवारों से सजे अपने दुर्ग में पड़ा हूँ।
फिर भी न जाने क्यों डर से काँप रहा हूँ।
आज थका-हारा, बेचारा बना हाँफ रहा हूँ।
आज न जाने क्यों जीत कर सब कुछ हारा हूँ।
दरअसल सूरज, तारों के वीभत्स रूप का मारा हूँ।
उसने मेरे उड़ने वाले दोनों डैनों को जला दिया है।
और ऊँचाई ने आज मुझे इतना थका दिया है।
कि मैं चाहता हूँ कि फिर से मैं वापस-
उसी तरूवर की छाँव में लौट जाऊँ।
और उस जीर्ण से तिनके के नीड़-
में अपने को समा लूँ, जिसे आजतक-
इन सूरज, तारों की गर्मी न जला पायी
और न ही कोई डर उस तिनके को भेद पाया।
जो मिली थी कभी मुझे, उस तरूवर की छाँव-
के लिए मैं तड़फड़ा रहा हूँ।
लेकिन चाह कर भी आज मैं उस छाँव तक
वापस नहीं पहुँच पा रहा हूँ।