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चुनाव / राजीव रंजन

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फिर से आया मौसम चुनाव का।
गिरगिट सा रंग बदलते दाव का।
गधों के भी बढते बाजार भाव का।
फिर हरे होते संप्रदायिकता के घाव का।
जात-पात के नाम पर बिखराव का।
फिर से आय मौसम चुनाव का।
लक्जरी गाड़ी से भ्रमण गाँव-गाँव का।
उजने कौओं के फिर काँव-काँव का।
मगरमच्छी आँसू ले जनता से जुड़ाव का।
नैतिकता और सुचिता से अलगाव का।
झूठ और फरेब से फिर लगाव का।
मक्कारों के हाथों सत्ता बदलाव का।
फिर से आया मौसम चुनाव का।
उलझाते रंग-बिरंगे नारों के जाल में।
फँसाने को फिर झूठे वादों के चाल में।
काली दाल परोसते हर बार चुनावी थाल में।
तिकड़म ही ढाल होता उनका हर हाल में।
शर्म-हया रखते अन्दर मोटी खाल में।
भोली जनता ही ठगी गयी है हर काल में।
खेवनहार बनना है, डुबने नाली नाव का।
फिर से आया मौसम चुनाव का।