Last modified on 9 नवम्बर 2017, at 14:41

मन / राजीव रंजन

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:41, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन |अनुवादक= |संग्रह=पिघल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अलभ्य आकाश कुसम तोड़ लाने को मन मचल रहा।
चंचल प्रकृति इसका, चाह कर भी नहीं कभी अचल रहा।।
जिंन्दगी की राहों में न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहा।
ईश्या, द्वेश, क्रोध के अवरोधों पर हरदम अटकता रहा।।
उद्विग्न, उत्ताल तरंगों सा डूबता उतरता यह मन।
जीवन के महासिंधु में भावनाओं के कल्लोल पर तैरता मन।।
कामना-वायु के हिंडोरे पर कभी झूलता यह मन।
मद के झंझा संग शीलता की डाल मरोड़ उड़ता मन।।
मौन तपस्वी बन, बनना चाहता जब कोई साधक है।
मन फिर भरमा माया में, तब बन जाता बाधक हैं।।
रूप-यौवन का अनल आँखों से उतर जब तन में दहकता है।
तब स्थिर-प्रज्ञ मन भी न जाने क्यों इतना बहकता है।।
वासना का बादल देख जीवन-अरण्य में मन-मयूर नाचता है।
सत्य का इन्द्रधनुश देख फिर यही गीता का उपदेश बाँचता है।।
करके वश जीत लिया मन को जो, जग वही जीता है।
बनाता यही हर नर को राम और नारी को सीता है।।