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देवता-सत्य / रामनरेश पाठक

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मेरी चैतन्यता के अपराधों की
कंदीलें जलाकर
अगर अपने घर को रोशनी
दे सकते हो, तो दो
मेरे लिए गंदी नालियों से
आचमन का जल लाकर
मुझे दे सकते हो, तो दो
चीखो--
मेरा देवता सत्य नहीं था
परंतु जी चीखने से पहले
अपनी आरती के उच्च स्वरों को
पूर्ण विराम तो दे दो लो
और, अपने भ्रम को ही
प्रसाद बना कर
कुल-कुटुंब सहित ग्रहण करो, अब!
मैं तो स्वयं ही
'यातना का सूर्यपुरुष' था
तुम्हारे अर्घ्य तो तुमसे ही प्रेरित थे
यह छल नहीं था
मेरा कोई छल नहीं था
अपने आप में झांको
और चीखो, और जोर से चीखो
मेरा देवता सत्य नहीं था
मैं तो यह सौरमंडल छोड़ कर
अग्रगामी होऊंगा ही
(क्योंकि)
वही मेरी गति
नियति
और एकमात्र
परिणति है