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उधर कितने लोग हैं, कितना अकेलापन इधर / जयप्रकाश त्रिपाठी

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रिस रहा है घाव कोई, ज़िन्दगी की शर्त पर।
कुतरता है पाँव मेरे यह अभावों का सफ़र।

कर नहीं पाया अभी तक रिश्ते-नातों का हिसाब,
उधर कितने लोग हैं, कितना अकेलापन इधर।

रोज़ क्यों लगता है कि मंज़िल खड़ी है सामने
और बाक़ी रह गया है फ़ासला बस हाथ-भर।

बिखरने के डर से क्यों ऐसे सहेजा स्वयं को,
रेत के मानिन्द साबुत रह गया सब टूटकर।

बून्द-भर भी पता होता काश सच के मायने,
नहीं होती आँसुओं में दर्द की ऐसी लहर।