Last modified on 25 नवम्बर 2017, at 00:41

पत्तल चाटो / जयप्रकाश त्रिपाठी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:41, 25 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश त्रिपाठी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खाओ-खाओ, उनकी खाओ, उनकी गाओ, हमको बाँटो।
इनसानों का साथ छोड़कर धनवानों के पत्तल चाटो।

अव्वल-अव्वल जो दिखते हैं, ठग है, सब-के-सब बिकते हैं,
झूठे, क़ातिल और लुटेरे, चोर, चार सौ बीस सँपेरे,
राजनीति की चादर ओढ़े लोकतन्त्र के फुंसी-फोड़े
जाओ तुम भी गाल बजाओ, हुक्का-पानी करो, कराओ
घड़ियालों के आँसू पोछो, आदमखोरी में दिन काटो।

हम हैं अपने मित्र-गाँव के, वे मतलब के और दाँव के,
हम सब हैं जन-मन के प्यारे, वे सब खड़े बज़ार-बज़ारे
हमको भगत-सुभाष चाहिए, उन्हें देश का नाश चाहिए
जाओ तुम गलबहियाँ डालो, आस्तीन में अजगर पालो
बस्ती-बस्ती मानवता की क़ब्र खोदकर मिट्टी पाटो।

सिसक रहे खेतिहर-मजूरे, तुम सर्कस में बने जमूरे
आधी आबादी पर आफ़त, तुम उनके संग करो शराफ़त
कोठी बेचो, कोठे बेचो, घर-घर खूब मुखौटे बेचो
जात-पाँत के पँगे बेचो, नफ़रत बेचो, दंगे बेचो
आँख-आँख में धूल झोक कर बचा-खुचा उजियारा छाँटो।