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अँगनाई, दहलीज़, दुआरी / देवमणि पांडेय

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गाँव की माताओं को समर्पित है यह ग़ज़ल

अंगनाई, दहलीज़, दुआरी
तुम हो घर की दुनिया सारी

छोड़ गए क्यूँ तुम्हें अकेला
जिन बच्चों की तुम महतारी

काट दिया है ये जाड़ा भी
तन पर है बस एक ही सारी

ख़ुद से पूछो क्यूँ कहती है
ये दुनिया तुमको बेचारी

सात समन्दर आँख में फिर भी
सूखी है मन की फुलवारी

किसे पड़ी है जो ये देखे
कैसे तुमने उम्र गुजारी

सुख बैरी है जनम-जनम का
दुख से गहरी रिश्तेदारी

होठों पर मुस्कान है,दिल को
काट गई है ग़म की आरी

तनहा बैठी सोच रही हो
सुख-दुख आते बारी-बारी

सात जनम की क़ैद से निकलो
एक जनम है तुम पर भारी

सदियां गुज़रीं मगर अभी तक
सीख न पाई दुनियादारी

रोते रोते हंस पड़ती हो
तब लगती हो कितनी प्यारी

तुम चाहोगी तभी किसी दिन
बदलेगी तक़दीर तुम्हारी

शहर के एक समारोह में गाँव की एक परिचित महिला से मुलाक़ात हुई। मैंने हालचाल पूछा। वे बोलीं -- माँ-बाप गुज़र गए तो मायके से रिश्ता ख़त्म। बेटे परदेस में बस गए। अब गाँव में अकेले किसी तरह दिन काट रही हूँ। इस ग़ज़ल में मैंने उन्हीं का हालचाल दर्ज करने की कोशिश की है।