तुम्हारे बिना
समय - नदी की तरह
बहता है - मुझमें।
मैं नहाती हूँ - भय की नदी में
जहाँ डसता है - अकेलेपन का साँप
कई बार।
मन-माटी को बनाती हूँ - पथरीला
तराश कर जिसे तुमने बनाया है मोहक
सुख की तिथियाँ
समाधिस्थ होती हैं-
समय की माटी में।
अपने मौन के भीतर
जीती हूँ - तुम्हारा ईश्वरीय प्रेम
चुप्पी में होता है
तुम्हारा सलीकेदार अपनापन।
अकेले के अंधेरेपन में
तुम्हारा नाम ब्रह्मांड का एक अंग
देह की आकाशगंगा में तैर कर
आँखें पार उतर जाना चाहती हैं
ठहरे हुए समय से मोक्ष के लिए।