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अश्रु कणिका / कैलाश पण्डा

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अश्रु कणिका
तुम हर्षित मन से
भाव सुनहले
स्वर्णिम कण से
अनगिनत गहरे
बिम्ब लिये चरसे
गिरती हो !
तापित ह्रदय से
मानो बूंद-बूंद घट से
चेतना के चिर शिखर पर
संवेदना की संवाहिका बन
बहती हो
तुम कब पाहन से निकसी
गरलराज संग राची
हो मेघों का गर्जन जब
तब पृथ्वी के तृण-तृण का सृजन।
हरियाली मंडाराती
मूक नहीं कोयल रह पाती
मयूरा नित्य राग आलपे
नूत्य नूतन कर पाते
सुख गागर भी तब सागर बन जाते
अश्रुकणिका पाया तुम से स्नेह अपार।