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वहाँ चार आदमी थे / बाबुषा कोहली

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वहाँ चार आदमी थे

पहला — शब्दों से भरा हुआ था
उसके मुँह से ही नहीं
नाक कान और आँखों से भी
शब्द टपकते थे
शब्दों के ढेर पर खड़ा
उसे गीता कण्ठस्थ थी
पर कृष्ण का पता न था

दूसरा — अर्थों से भरा हुआ था
वह हर समय परिभाषाएँ गढ़ता
मौसम खगोल रहस्य
आकाश पाताल
भूगोल राजनीति
कला प्रेम की
व्याख्या करता
अर्थों को खोजती उसकी नज़रें
मेरे उभारों और गोलाइयों की विवेचना करती थीं

तीसरा — मौन से भरा हुआ था
उसके माथे पर चन्दन चमकता
उसके मौन के चारों ओर अपार भीड़ थी
उसे पूजा जाता
उसका तना हुआ चेहरा देख लगता था
उसने अपनी ज़ुबान का गला दबा रखा हो
उसकी जबान को छोड़
बाक़ी सब कुछ बोलता था
उसके मौन में बहुत शोर था

और एक था चौथा आदमी
ख़ालीपन से भरा हुआ था
घुटनों के बल बैठा
आकाश को निहारता
उसकी ख़ाली आँखें भरी हुई थीं
खींचतीं थीं
जैसे ल्युनैटिक्स को
खींचता है चाँद
और मैं खिंच गई थी

उसके ख़ालीपन में मैंने
छलाँग लगा दी
हम एक के भीतर एक थे
पर दो थे
हमारी सटी हुई त्वचाएँ जल्द ही
ऐसी महीन रेशमी चादर में
बदल गईं
कि हवाएँ उसके आर-पार जाती थीं
बौछारें वहाँ मुक़ाम बना टिक जाती थीं
हम दोनों की सटी हुई त्‍वचाओं के बीच भी
हमने ख़ाली ही छोड़ी थी वो ख़ाली जगह
अब उस ख़ाली जगह में
गिलहरियाँ फुदकती हैं
पपीहे गीत गाते हैं
तितलियों का रंग वहीं बनता है
चाँद की कलाएँ बदलने के बाद वहीं आकर रहती हैं
वहीं बहती रहती है शराब
झरने वहीं से फूटते हैं
और एक दरवेश एक हाथ से आकाश थामे
दूसरे से धरती सम्भाले
अपनी ही धुरी पर
घूमता रहता है गोल-गोल