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व्यथा गीत / लावण्या शाह

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तुम्हारी याद आस-पास फैली रात्रि से उभरती हुई
नदिया का आक्रँद,
जिद्दी बहाव लिये,
सागर मेँ समाता हुआ
बँदरगाह पर सूने पडे गोदाम
ज्यूँ प्रभात के धुँधलके मेँ
-और यह प्रस्थान -
बेला सम्मुख,
ओ छोड कर जाने वाले !

भीगे फूलोँ के मुख से बरसता जल,
मेरी हृदय कारा पर,
टूटे हुए सामान का तल,
भयानक गुफा,
टूटी कश्ती की
-तुम्हीँ मेँ तो सारी उडाने, सारी लडाइयाँ, इक्ट्ठा थीँ -
तुम्हीँ से उभरे थे

सारे गीत,
मधुर गीत गाते पँछीयो के पर
-एक दूरी की तरहा,
सब कुछ निगलता यथार्थ --
दरिया की तरह !
समुद्र की तरह !
डूबता सब कुछ,
तुम मेँ वह खुशी का पल,
आवेग और चुम्बन का !
दीप - स्तँभ की भाँति प्रकाशित वह जादु - टोना !

उस वायुयान चालक की सी भीति,
वाहन चालक का अँधापन,
भँवर का आँदोलित नशा, प्यार भरा,
तुम्हीँ मेँ डूबता, सभी कुछ!-
शैशव के धूँधलके मेँ छिपी आत्मा,
टूते पँखोँ - सी ,
ओ छूट जानेवाले,
खोजनेवाला , है- खोया सा सब कुछ!

दुख की परिधि तुम --
जिजिविषा तुम --
दुख से स्तँभित -
तुम्हीँ मेँ डूब गया ,
सब कुछ !

परछाइयोँ की दीवारोँ को मैँने पीछे ठेला --
मेरी चाहतोँ के आगे,
करनी के आगे,
और मैँ , चल पडा !
ओ जिस्म ! मेरा ही जिस्म !
सनम! तुझे चाहा और, खो दिया --
मेरा हुक्म है तुम्हे ,
भीने लम्होँ मेँ आ जाओ ,
मेरे गीत नवाजते हैँ -
बँद मर्तबानोँ मेँ
सहेजा हुआ प्यार
- तुम मेँ सँजोया था --
और उस अकथ तबाही ने,
तुम्ही को चकनाचूर किया !

वह स्याह घनघोर भयानकता,
ऐकाकीपन,
द्वीप की तरह -
और वहीँ तुम्हारी बाँहोँ ने सनम, मुझे, आ घेरा --
वहाँ भूख और प्यास थी और तुम,
तृप्ति थीँ ! दुख था और थे पीडा के भग्न अवशेष ,
पर करिश्मा , तुम थीँ !
ओ सजन! कैसे झेला था तुमने मुझे, कह दो
-- तुम्हारी आत्मा के मरुस्थल मेँ,
तुम्हारी बाँहोँ के घेरे मेँ -
मेरी चाहत का नशा,
कितना कम और घना था
कितना दारुण, कितना नशीला,
तीव्र और अनिमेष!

वो मेरे बोसोँ के शम्शान,
आग - अब भी बाकी है,
कब्र मेँ --फूलोँ से लगदे बाग,
अब भी जल रहे हैँ,
परवाज उन्हेँ नोँच रहे हैँ !
वह मिलन था -- तीव्रता का,
अरमानोँ का -जहाँ हम मिलते रहे ,
गमख्वार होते रहे -और वह पानी
और आटे सी महीन चाहत ,
वो होँठोँ पर, लफ्ज्` कुछ, फुसफुसाते गुए
-यही था, अहलो करम्,
यही मेरी चाहतोँ का सफर
-तुम्हीँ पे वीरान होती चाहत,
तुम्हीँ पे उजडी मुहब्बत !

टूटे हुए, असबाब का सीना,
तुम्हीँ मेँ सब कुछ दफन !
किस दर्द से तुनम नागँवारा,
किस दर्द से, नावाकिफ ?
किस दर्द के दरिया मेँ तुम,
डूबीँ न थीँ ? इस मौज से, उस माँझी तक,
तुम ने पुकारा , गीतोँ को सँवारा,
कश्ती के सीने पे सवार, नाखुदा की तरह
-- -- गुलोँ मेँ वह मुस्कुराना,
झरनोँ मेँ बिखर जाना, तुम्हारा,
उस टूटे हुए, सामान के ढेर के नीचे, खुले दारुण कुँएँ मेँ !
रँगहीन, अँधे, गोताखोर, कमनसीब, निशानेबाज भूले भटके, पथ - प्रदर्शक,
तुम्हीँ मेँ था सब कुछ, फना !

यात्रा की प्रस्थान बेला मेँ,
उस कठिन सर्द क्षण मेँ,
जिसे रात अपनी पाबँदीयोँ मेँ बाँध रखती है
समँदर का खुला पट -
किनारोँ को हर ओर से घेरे हुए और रह जाती हैँ, परछाइयाँ
मेरी हथिलियोँ मेँ, कसमासाती हुईँ
--सब से दूर ---
सभी से दूर ---इस बिदाई के पल मेँ !
आह ! मेरे, परित्यक्यत्त जीवन !!!