Last modified on 11 फ़रवरी 2018, at 19:28

गिल्ली-डण्डा / कन्हैयालाल मत्त

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:28, 11 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कन्हैयालाल मत्त |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लकड़ी का मोटा-सा डण्डा,
छोटी-सी गिल्ली बन जाती।
गुच्ची पर डण्डे को रखकर
गिल्ली दूर उड़ाई जाती।

डण्डे की प्रत्येक चोट पर
उड़ी-उड़ी फिरती है गिल्ली।
कभी पहुँचती है कलकत्ते,
कभी पहुँच जाती है दिल्ली।

आसमान में दिखती जैसे —
तितली भौंरे छैल-छबीले।
इसे लपकना सरल नहीं है,
रखती दोनों सिरे नुकीले।

मगर विरोधी दल के बच्चे,
साहस का परिचय देते हैं।
सही दिशा में उछल-कूदकर,
गिल्ली अधर लपक लेते हैं।

अपना-अपना दाँव खेलते,
एक-एक कर सभी खिलाड़ी।
अन्य दौड़ते घात लगाते,
कभी अगाड़ी, कभी पिछाड़ी।

सबसे श्रेष्ठ खिलाड़ी वह है,
जो औरों को ख़ूब छकाए।
उसी टीम को ’ट्राफ़ी’ मिलती,
जो भी ज़्यादा अंक बनाए !