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धूप की साज़िश के खिलाफ़ / नागराज मंजुले / टीकम शेखावत

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इस सनातन
बेवफ़ा धूप
से घबराकर
क्यों हो जाती हो तुम
एक सुरक्षित खिड़की की
सुशोभित बोन्साई!
और
बेबसी से... माँगती हो छाया..!

इस अनैतिक संस्कृति में
नैतिक होने की हठ की खातिर......
क्यों दे रही हो
एक आकाशमयी
मनस्वी विस्तार को
पूर्ण विराम...!

तुम क्यों
खिल नहीं जाती
आवेश से
गुलमोहर की तरह.....
धूप की साज़िश के ख़िलाफ़.. !

मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत