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विकल्प शेष / मोहन सगोरिया

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आधी नींद और जाग के दौरान मैंने पाया
जिस सोफ़े पर मैं लेटा हूँ, वह सो रहा है

टी-टेबुल पर रखी चाय ठण्डी हो रही है प्याले में
और मेज़ भी चुप कि उनींदी-उनींदी-सी

बाहर गली में शायद जुलूस था कोई नारे लगाता
सीधा प्रसारण हो रहा था न्यूज़ चैनल पर उसका

भीतर और बाहर का शोर नहीं डाल रहा था ख़लल
कि इस तरह नींद गहराती जा रही थी हर सिम्त

डगमगाते क़दमों से उठ खिड़की खोलने का विकल्प था
मेरे लिए शेष जिसे मैं नहीं चुन पा रहा।