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मंगल-गान / प्रज्ञा रावत

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सूरज की एक ख़ूबसूरत किरण-सी
हमारी सुबह को खुशनुमा बनातीं
सीलन को धूप दिखातीं
अपनी जादुई छड़ी से
हमारे अलसाए घर को जगातीं
हर रोज़ जब दाख़िल होती हैं
हमारे दरवाज़ों के भीतर
ये कामवालियाँ

तो दरअसल
वे ही तो हैं जो सचमुच झेलती हैं
विस्थापित होने का दर्द हर तरफ़ से
खड़ी रहती हैं फिर भी एक मजबूत
लोहे की दीवार-सी स्थापित
हमारे हर दुःख में

उनके चेहरे पर टँकी होती हैं
हमारे दिन के शुरू होने की पहली रेखा
वो नहीं जानतीं
विस्थापित या स्थापित
होने की परिभाषा
और उनके बारे में किए जा रहे
विमर्षों को
वो नहीं जानतीं उन व्याख्यानों को
जो छपते-बिकते हैं हज़ारों में
उनके बारे में

श्रम के हाथों की कठपुतली
वे हैं बेख़बर अपनी ताक़त से
उनके धीरे-धीरे उभरते वजूद में
जब वेग आएगा अपनी पूरी ताक़त के साथ
तब हज़ारों साल के दंश की
सीलन को वे दूर हटाएँगी
परत दर परत

वह समय उनका होगा
अनन्तकाल से इन्तज़ार करते
आईने तब मुस्करा उठेंगे
वो झटपट फेंक आएँगी अपनी
सारी की यारी यातनाएँ
बड़े-बड़े कूड़ेदानों में
और मिल-बैठ फिर
गाने लग जाएँगी कोई नया
मंगल-गान।