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रेहन / कुमार वीरेन्द्र

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 गौरैया तो उड़ते
चली जाती, पर उसका पंख झरकर
गिर रहा, और नज़र पड़ गई, आँचर में लोक लेती, फिर निहारते
कान में लगा लेती, 'आजी, ई बाली थोड़े है, ई तो पाँख है', सुनते
ही कह पड़ती, 'अरे, बाली इससे सुन्दर थोड़े', कोई फूल
गिरा हो, उठा, कान में खोंस लेती, टोको तो
कहती, 'अरे, झुमका इससे
सुन्दर थोड़े'

मैं तितली के पत्तों की
पायल बनाता, माई, चाची, दीदी, फुआ के लिए
तो आजी के लिए भी बनाता, दिखाता, खिलते पहिन लेती, कहता, 'देखो, अबकी
बार जब अनाज आएगा न खरिहान से, बेचके साँचो कीन लेना', कहती 'अरे इससे
सुन्दर थोड़े', बगीचे में कोई तोड़ रहा होता गूलर, थोड़ा बीन लाता, माला
बनाता, कितना भी ना-नुकुर करे, पहना ही देता, और कहता
'देखो, बहुत सुन्दर है न', हरसते कहती, 'हँ बेटा
कवनो सिकरी-हार इससे जादा
सुन्दर थोड़े'

लेकिन माई से सुना, आजी ऐसी छूँछ
नहीं थी, उसके पास अपने नइहर के गहने थे, ऊ तो बाबा ने एक दिन
आजी से कहा, 'देखो, आपन एगो खेत एक पुुुसुत से रेहन पर है, जब कगार से गुजरता हूँ, लोग हँसते
हैं, लेकिन आँखें झुका, पुरखों को याद करते, इसलिए निकस लेता हूँ, कि खेत रेहन ही सही, वो प्यासे
तो नहीं मरे, जिन्हें लोग किसी कुएँ से, पानी नहीं भरने देते थे, नदी का घाट भी अलग, छुआ न
जाएँ, दुश्मन भले बढ़े, पुरखे खोदवाकर ही रहे, कुआँ उनके टोल में, अगर तुम गहने
दे दो, खेत छूट जाए, एक बार, बस एक बार आपन हाथों हरियर
देखना चाहता हूँ खेत', आजी ने दे दिए गहने, कि एक
बार क्या, हर चैती हर भादों में
देख सकेें बाबा

लेकिन ऐसा कहाँ, एक
बार कहा था, तो बाबा बस एक बार ही देख पाए, आपन
खेत आपन हाथों हरियर, जब एक बार, तेलहन के पत्तों को, कटोरी से गोल-गोल काट, चूड़ी
बना लाया और आजी से कहा, 'देेेखो, इसे पहिन लो, खाली हाथ नाहीं रहते, तुम्हीं तो माई से
कहती हो, फिर तुम काहे हो, वइसे मालूम है, तुमने सब गहने बाबा को दे दिए, दे
दिए थे न', इस पर लगा आजी यही कहेगी, 'तू बहुते बोलता है, चुप भी
तो रहा कर', लेकिन उसने कहा, 'पास गहने रखके का
करती, ओहसे खाली हमार सिंगार बढ़ता
खेत रेहन से छूट जाए, बेटा

आँगन की हर चिरईं

सुहागन लगती है !'