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चिन्हासी / कुमार वीरेन्द्र

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 सरग में बिअफइया

सुकवा को छूने के लिए
जैसे ही आगे बढ़ती, आजी की जाने कवन
नींद, टूट जाती, लेकिन उसके उठाने से पहिले ही, मिट्ठू जगाने लगता
'बबुआ-बबुआ...उठs-उठs...बबी-बबी...उठs-उठs...' और हम भाई
बहिन, दउरी-छैंटी उठा, निकल पड़ते, महुआ बीनने, तब
बगीचे में, दो महुआ के पेड़, वह भी दु जगह
एक जगह तो रोज़ बीनने जाते
एक जगह

दिन बीच करके कि एक पेड़ साझ

जिस दिन साझीदार
का भाँज होता, उहाँ, हम भूलकर भी नहीं जाते
लेकिन जिस दिन हमारा भाँज होता, उस दिन भी साझीदार घर के, हमारी ही उमर के
भाई-बहिन दउरी-छैंटी लिए चले आते, और बाँध पर बैठ जाते, कि हम कब टकसें तो
जो छुटा-छुपा हुआ पतइयों में, बीन ले जाएँ, ऐसे में हर बार तो नहीं, लेकिन
कई बार, उनका टकटकी लगाए बैठे रहना, सुहाता नहीं, तब
मैं, दीदी, जो खाने को कन भेजती आजी, उन्हें
भी दे आते, वे कुछ कहते नहीं
बस खा लेते

फिर अपनी टुइँया से उन्हें पानी भी पिलाते

धीरे-धीरे ऐसे घुल-मिल गए
कि हम जान-बूझकर उस पेड़ से महुआ कम बीनते, आजी
माई-चाची पूछतीं तो कह देते, 'का करें, आज तो नीलगाय-घोड़पड़ास खा गए...', हमारी संगत
में वे इतने ख़ुश होते, कई बार हमारे चहुँपने से पहले चहुँप जाते, और कभी वो हमारा तो कभी
हम उनका महुआ, बिनवा देते, कि एक दिन, उनके चाचा ने देख लिया, हमारा कन
खाते-महुआ बीनते, तो उन्हें बगीचे में ही लोटा-लोटा केे मारा-पीटा
तब ऐसी लगी कठमुरकी, हम बस टुकुर-टुकुर देखते
सुनते रहे, 'दुस्मन का अन्न खाते हो
आज जान मार देब'

इसके बाद वे दिन बीच करके ही आते

और अब हम कुछ दे
पाते न वे ले पाते, पानी भी पीना होता, नदी किनारे
भुड़ाड़ के पास जाते, एक दिन पता नहीं, का हुआ, आजी से सब बता दिया, और पूछा
'ऊ हमारे कवन हैं, हम दुस्मन हैं उनके, ई महुआ साझ काहे है ?', आजी ने कुछ सोचते
हुए कहा, 'बेटा, ऊ कहते हैं, पेड़ बेचके पैसे बाँट लेते हैं, हम कहते हैं कि
हरियर नहीं कटवाएँगे, पुरखों की चिन्हासी है...', 'कैसी
चिन्हासी, आजी !', 'बेटा, सुनते हैं कि
तेरे बाबा के बाबा

और उनके घर का कोई खाँटी सँघतिया थे

दोनों ने एक-दूसरे
की जमीन में महुए का पेड़ लगाया, कि एक
भी बचेगा, बड़ा हो चुएगा, जाड़ा में, उसका लट्टा बनवाएँगे, अउर कउड़ा-जुटान
में जो गवनई करने आएँगे, उन्हें खिलाएँगे, कहेेंगे, 'देखो, ई है, ई हमरी दोस्ती की
मिठाई, अइसन मिठास कुछुओ में नाहीं, कतहुँ नाहीं', साँचो, ऊ दुनो
सँघतिया पिरित के हर भाव जानते थे, पर का जाने
काहे, ई नाहीं जानते थे, बेटा, कि महुए
के लट्टे की तरह खाली

दोस्ती ही नाहीं, दुश्मनी भी

मिठ होती है !