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पहाड़ / कुमार मुकुल

गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है

फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़

जिसे देखो

उधर ही भागा जा रहा है


बादल

पहाडों को भागते हैं

चाहे

बरस जाना पडे टकराकर

हवा

पहाड़ को जाती है

टकराती है ओर मुड जाती है

सूरज सबसे पहले

पहाड़ छूता है

भेदना चाहता है उसका अंधेरा

चांदनी वहीं विराजती है

पड जाती है धूमिल


पर

पेडों को देखे

कैसे चढे जा रहे

जमे जा रहे

जाकर


चढ तो कोई भी सकता है पहाड

पर टिकता वही है

जिसकी जडें हो गहरी


बादलों की तरह

उडकर

जाओगे पहाड तक

तो

नदी की तरह

उतार देंगे पहाड

हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर ।