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गमछा / अदनान कफ़ील दरवेश

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पिता जब कभी शहर को जाते
माँ झट से अलमारी से गमछा निकालकर
पिता के कन्धों पर धर देती
जैसे अपनी शुभकामनाएँ लपेट कर दे रही हो
कि सकुशल घर लौट आना
मुन्हार होने से पहले।

जब माँ अपने यौवन में ही ब्याह कर आई थी पिता के घर
तब भी शायद उसने अपने सारे स्वप्नों को एक गमछे में लपेटकर
पिता को सौंप दिया था

पिता
जो दुनियादारी के कामों में अक्सर चूक जाते
गच्चा खा जाते
कई बार भूल जाते अपना चश्मा
अपनी क़लम
दुकान की चाबी और तमाम चीज़ें
शायद उसी तरह माँ के स्वप्नों की पोटली भी
कहीं खो आए
शहर जाते हुए किसी दिन।

माँ
जिसे मैंने टीवी और फिल्मों में दिखने वाली
पत्नियों की तरह व्यवहार करते हुए कभी नहीं देखा
कभी कुछ खुल कर माँगते-मनवाते नहीं देखा
माँ जो सिर्फ़ माँ ही थी
शायद पिता के लिए भी
कभी न पूछ सकी पिता से कि वे कहाँ उसके
स्वप्नों की पोटली छोड़ आए...

जब एक दिन ट्रेन पकड़ने के लिए घर से निकला
माँ ने मेरे
कन्धों पर भी गमछा डाल दिया
और मैंने सहसा अपने कन्धों पर काफी वज़न महसूस किया

जब स्टेशन पर अकेले किसी कोने में बैठा
ट्रेन का इन्तज़ार कर रहा था
कन्धे पर पड़े गमछे की तरफ मेरी नज़र गई
जिसका मुँह मेरी ही तरह लटका हुआ था
और मैंने महसूस किया माँ के हाथ का दबाव
जो वैसे का वैसा ही अब भी गमछे में लिपटा पड़ा था
माँ का विदा में उठा हाथ याद आया मुझे
और पिता का थका कंधा भी
जो अब गमछे के वज़न से भी अक्सर झुक जाता था...

गमछा जो अब पूरे रास्ते मेरा साथी बनने वाला था
मैंने उसपर हाथ फेरा
और उसे देखकर शुक्रिया अदा करने की मुद्रा में मुस्कुराया.

गाँव से हज़ारों मीलों दूर
इस महानगर में जब कभी बाहर धूप में निकलता हूँ
तो अपने उदास और कड़े दिनों के साथी
अपने गमछे को उठाता हूँ और उसे ओढ़ लेता हूँ
क्यूँकि मुझे यक़ीन है इस गमछे पर
इसके एक-एक रेशे पर
जिसमें मेरा ही नमक जज़्ब है !

और
सच कहूँ तो
एक पुरबिहा के लिए गमछा
महज़ एक कपड़े का टुकड़ा भर ही नहीं है
बल्कि उसके कन्धों पर बर्फ़ की तरह
जमा उसका समय भी है !

(रचनाकाल: 2016)