मैं तुम्हारी खोज में,
युगों से रत रहा,
सुबह जब मैं आँख मलते हुए,
उठा ,
और देखा ,
सूरज की किरणों का जाल,
जिसने मेरी अबोध दृष्टि,
उचकने का प्रयास किया,
मैं समझा तुम ,
प्रकाशपुँज हो।
जब भूख ने मुझे,
विचलित किया,
और मैं इसे,
शान्त करने हेतु,
जंगलों में फिरने लगा,
और मैंने नाना प्रकार के,
वृक्षों का अवलोकन किया,
जो सुदृढ़ और विशाल थे,
मैं समझा तुम सर्वव्पापी,
और हर तरफ़ से मुझे,
घेरे हुए हो।
फिर मैंने अपने भोजन,
की व्यवस्थित संस्था का,
विकास किया,
कृषि की खोज की,
और एक दिन ओले और तूफ़ान ने,
मेरी फ़सल को बर्बाद ,
कर दिया,
तब मैं समझा ये तुम हो,
जो सर्वशक्तिमान हो।
फिर रात ने दस्तक दी,
और मैं तुम्हारी बनाई भूमि पर,
एक फ़लसफ़ी की भाँति,
पसर गया,
और आकाश को,
असँख्य तारा मण्डलों से,
सुसज्जित पाया,
मैं चीख़ उठा,
ये तुम हो,
जो धरती पर नहीं,
बल्कि आसमानों में रहते हो।
और युगों युगों तक,
इन्ही भ्रमों में,
जीता रहा।
मैसोपोटामिया, मोहन-जोदड़ों,
मिस्र, फ़ारस और यूनान ,
इत्यादि सभ्यताएँ,
मेरी गवाह बनीं।
मैंने तुम्हे प्रस्तर-खण्डों में खोजा,
तो कहीं घाटी की धुन्ध में,
कभी नार की लपटों में,
तो कभी शँख-नाद में,
जैसे-जैसे मेरे मस्तिष्क का,
विकास हुआ ,
मैंने वैसे-वैसे तुम में
नए गुणों के दर्शन किए
और उनकी व्याख्या की
तुम्हारे लिए गगन-चुम्बी
प्रतिमाएँ और मन्दिर बनाए
तुमसे मिन्नतें, मुरादें की
अब तुम मेरी सभी सफलताओं
और असफलताओं के
पर्याय बन गए।
फिर मैं अपने विकास के उत्कर्ष
पर पहुँचा
और अब मैंने तेरी सत्ता
मानने से इनकार कर दिया
क्योंकि अब मैं
अत्याधुनिक हो चुका था .
फिर इस अन्धी प्रगति में
मैंने अपनी ही क़ब्र खोदनी
शुरू की
और एक दिन मेरा ही
बनाया सूरज
मुझे लील गया।
और आज मेरी तुमसे भेंट
हुई
'हा-हा'-
तुम हँसते रहे
मुझ पर सदैव
शायद सोचते होंगे
'मैंने भी
एक अनोखे जीव की
सृष्टि की'।
(रचनाकाल: 2016)