Last modified on 11 मार्च 2018, at 17:14

आस / वीरेंद्र पंवार

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:14, 11 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेंद्र पंवार }} {{KKCatGadhwaliRachna}} <poem> मन्ख...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मन्ख्या हाल देखि
बार बार
निरस्ये जंद सरेल
लगदु की अब कुछ नि हवे सकदो यख
कुछ नि होंण येयर बी
बाजिंदा झणी किले
जुकडिया कै कोणा बटी
उठदी आसे लूँग
कि कखी ना कखी
कबि ण कबि कुछ ण कुछ
जरुर होलु।