Last modified on 17 मार्च 2018, at 20:42

राही / जितेंद्र मोहन पंत

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:42, 17 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जितेंद्र मोहन पंत }} {{KKCatKavita}} <poem> जब मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब मैं
पीछे मुड़कर देखता हूं
न जाने क्यों ?
देखता ही रह जाता हूं।
अतीत की देह पर
विछोह के दहकते हुए शोलों को
थककर चूर होकर
थम से बैठ जाता हूं।
होश में आकर दोनों हाथों से
आंखें अपनी पोंछता हूं
नजरें फेरकर डग भरते हुए
खंडहर मंजिल में झांकता हूं।