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नजरे अलीगढ / मजाज़ लखनवी

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सरशारे निगाहें नरगिस हूँ, पाबस्तए गेसुए सुंबुल हूँ।
यह मेरा चमन है, मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

हर आन यहाँ सुहबाए कुहन, एक सागरे नौ में ढलती है।
कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है

इस्लाम के इस बुतखने में, असनाम भी हैं और आजर भी।
तहजीब के इस मयखने में, शमशीर भी है और सागर भी

यॉ हुस्न की बकर् चमकती है, याँ नूर की बारिश होती है।
हर आह यहाँ एक नगमा है, हर अश्क यहाँ मोती है

फतरत ने सिखायी है है हमको, उफ्ताद यहाँ परवाज यहाँ।
गाए हैं वफा के गीत यहाँ, छेडा है जुनू का साज यहाँ

आ-आ के हजारों बार यहाँ, खुद आग भी हमने लगाई है।
फिर सारे जहाँ ने देखा है, यह आग हमीं ने बुझाई है

हर आह है खुद तासीर यहाँ, हर ख्वाब है खुद तदवीर यहाँ।
तदवीर के पाए संगी पर, झुक जाती है तकदीर यहाँ

जर्रात का बोसा लेने को, सौ बार झुका आकाश यहाँ।
खुद आँख से हमने देखी है, बातिल के शिकस्तेफाश यहाँ

इस गुल कदा पारीना में फिर आग भडकने वाली है।
फिर अब्र गरजने वाले हैं, फिर अब्र कडकने वाली है

जो अब्र यहाँ से उठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा।
हर जूए रवाँ पर बरसेगा, हर कोहे गिरॉ पर बरसेगा