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पंदेरु / बृजेन्द्र कुमार नेगी

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भांड़ो की रयाड़
लगी रैन्दी छै
बिन्सिरी बटी कै दिन।

अगल्यारी कु बाना
रंगड़ाट हून्दु छा
सुबेर-ब्यखुनी हर दिन।

कभि घमग्याट कैकि
कभि बूंद-बूंद
भांडा भ्वरदी छै वूँ दिन।

लारा-लत्ता
नहेण-धुएण कि बारि
लगदी छै वूँ दिन।


ठसक छै तेरी भी
जब बणान्दा छा,पतनलु लगांदा छा
लोग रोज वूँ दिन।

पुजदी छै, भ्यटदी छै
सबसे पैलि त्वे थै
ब्योली वूँ दिन।

बारमस्य ब्वग्दी छै
कभि ततड़ाट कैकि
कभि तुप्प-तुप्प तु वूँ दिन।

गोर-बछुरु, पौण-पंछी
रस्ता-चल्द तिसलों कि
तीस बुझान्दी छै तु वूँ दिन।

आज तेरि निर्झर धार
सिमन्ट कंक्रीट कि
हौदी मा छ जकड़ीं।

रफ्तार तेरी
कथित विकास कु
नलखों कु प्याट च सिकुड़ीं।

क्वी बुज्यडु मन्नु
क्वी नलखा त्वड्नु
गुलामी पर मनमर्जी चल्णी।

पैलि आजाद छै
नैसर्गिक छै
काम आन्दि छै सब्यूं कि।


आज बंधी छै
जकड़ी छै, पराधीन छै
काम नि आणी छै कैकि।