Last modified on 1 मई 2018, at 21:05

मेरी हमबिस्तरसे / साहिल परमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 1 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साहिल परमार |अनुवादक=साहिल परमार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बयाँ के घोंसले को
जैसे तितर-बितर कर देता है
छलाँग लगाकर
बन्दर
बस, वैसे ही
अर्थव्यवस्था की आँधी
हड़बड़ा देती है कभी
जतन से बिछाए गए
हमारे
बिस्तर को।

बिस्तर के साथ-साथ
हमारे जिस्मों में भी
पड़ जाती हैं
सिलवटों पर सिलवटें
और
पारगी आग जलाए और
उड़ जाएँ मधुमक्खियाँ
बस वैसे ही
मधु संचित करने को तत्पर
हमारे जिस्म से
हरी-हरी मक्खियाँ
हो जाती हैं
नदारद।

रह जाते हैं
आइने की
उलटी बाजू जैसे
हमारे चेहरे
चौपट
और अपारदर्शी
घुलमिल जाते हैं उसमें
अकुला देनेवाला अतीत
और
झुलसता भविष्य।

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार