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महाप्राण / प्रेमशंकर शुक्ल

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महाप्राण था

जीवन का महागान गाता था

अंतस विस्तृत पहाड़ था :

आकाश छुआ

नदी फूटती थी जिससे

कविता की


मरकर हज़ार मरण

साध लिया था जीवन-राग

जाग-जाग कहता था--

फिर एक बार


तना हुआ सीना

गरिमा से गहरी आँखें

सूत्र सुझाती थीं-

दृढ़ आराधन से दो उत्तर

विकट प्रश्न हैं कहाँ अमर


कद-काठी का ऊँचा था

बड़े-बड़े छंदों को

अनुशासित करता था

कुपथ छेंकता

पथ पर वह आता था

गाता था- लिखता था

मुस्काता था : बड़ी-बड़ी सत्ता पर


दुर्धर्ष रहा वह इतना

कि तुलना हो जल से

सहज-सरल भी इतना

कि उपमा हो

जल से ही।