Last modified on 11 मई 2018, at 23:47

सहना / कात्यायनी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:47, 11 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कात्यायनी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रोज़ कहते हैं —
'अब और नहीं सहा जाता '
और सहते हैं।

जब सबकुछ
नहीं सहा जाएगा
तो कुछ नहीं कहेंगे।
जो ज़रूरी होगा , करेंगे।
 
सहने को तो
बहुत कुछ सहा जा सकता है।
 
ज़रूरत है कि
यह बताया जाए कि
मनुष्‍यता की रक्षा के‍ लिए
कहना नहीं सहना तुरन्‍त बन्‍द कर देना होगा।

मार्च , 1986