वहॉं एकदम घुप्प अन्धेरा है 
जहॉं से छन-छनकर आ रहे हैं 
न्याय के विधान । 
मैं धाराओं-अनुच्छेदों से 
ज़िन्दगी तोलता हूँ। 
मेरी कुर्सी के पाये 
धँस रहे हैं गीली धरती में। 
यह धरती गीली क्यों है? 
रोज़ सड़कों पर देखता हूँ 
सिर पर रक्त-सनी पटि्टयॉं 
बॉंधे लोग । 
कहॉं दुर्घटनाग्रस्त हुए वे ? 
हथौड़ा तो मैं पटकता हूँ 
लकड़ी की मेज़ पर । 
हाथ धोता हूँ 
तो पानी ख़ून-ख़ून हो जाता है।
 
जजी में क्या रखा है। 
सोचता हूँ होटलों में 
मुर्गे़ सप्लाई करूँ 
या चमड़े के कारख़ाने में सुपरवाइज़र हो जाऊँ ।
फरवरी , 1996