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द्रोण मेघ / राहुल कुमार 'देवव्रत'

कई दिन हुए
नदी तालाब का पानी जम गया है
पांव ठीक से रखना ... संभालकर
जोर की फिसलन है ज़रा अदब से चलो
पता है? थोड़े दिन पहले
यहाँ किनारे हुआ करते थे
शहर से थोड़ी दूर तो थी ये जगह
मगर यहाँ हर घड़ी
सुरीली आवाज चटखती रहती थी
अद्भुत जीवन हुआ करता था बहते पानी में
जमी है जब से कब्र—सी लगती है मुझे
अभी जूते पहन
कितने आराम से चल रहे हो तुम
याद होता जो तब का मंज़र
पांव धरते ही रोएँ सिहर जाते
तब के उलट सबकुछ बदला-बदला-सा है इस दम
बहुत ज़रूरी हो
तो ही कोई घर से निकलता है
रोशनी आकाश से छन नहीं पाती
घिरे बादल से चिपट जाती है
शफ्फाक-सी उड़ती है बरफ़ हवा के साथ
जब आनंद से नाचते गाते हो तुमलोग
परिंदे ताकते हैं वीराने को
सफेद चादर बिछी है चारों तरफ मैदान पूरा खाली है
क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
उठते हो रात-बिरात
नकाब ओढ़े हुए देखते हो
बरफ का गिरना
सिकुड़ के बैठा है अबाबील उस सनोबर पर
हवा जब जोर से बहती तो कुनमुनाता है
सजा-सी है चार दिन बीत चुके हैं
आंखें नम हैं उसकी पेट खाली है